गुरुवार, 28 जुलाई 2016

वो शरीर से गया, ये आत्मा से

जिंदगी और मौत से जूझते योगेश साहू ने अंतत: दम तोड दिया. आज उसके अंतिम संस्कार में जो भीड उमडी, वह इस बात की गवाह है कि सरकारी मशीनरी में मानवीयता और संवेदनशीलता भले ही कोने में बैठी सिसक रही हो मगर सामाजिक संस्कारों में वह आज भी फल—फूल रही है. योगेश उन लाखों युवाओं में से एक था जिनके लिये सवेरा नई मेहनत और शाम थकान लेकर आती है. उसके लिए सरकार और विपक्ष से लेकर आम आदमी तक चिंतित है, लेकिन इतना भागयशाली रमजान अली नही था. जबकि वह ज्यादा भयावह अत्याचार से गुजरा था...!  
लगभग ढाई साल पहले तीन महीने से छिन चुकी अपने पसीने की कमाई को हासिल करने की गुहार लगाते-लगाते रमजान अली दुनिया से चल बसा. कांकेर के जिलाधीश कार्यालय में जब उसने मिट्टी का तेल छिडक़कर अगिनदाह किया तो उसकी आत्मा के साथ-साथ मानवता, प्रशासनिक संवेदनशीलता और सुराज के खोखले दावे भी होम हो चुके थे. इस ह्दय विदारक घटना ने दो बड़े सवाल उभारे हैं. पहला यह कि जिंदगी और मौत से जूझते अली ने जिस अफसर को दोषी बताया है, उसके खिलाफ एफआईआर क्यों नहीं हुई? और दूसरा यह कि सरकार और प्रशासन यदि अफसर को बचाने में लगे रहे तो कर्मचारी-कल्याण के नाम पर नेतागिरी बघारने वाले या मुस्लिमहितों के नाम पर अपनी रोटियां सेंकने वाले धार्मिक-सामाजिक संगठन या उसके नेता, रमजान को या उसके परिवार को न्याय दिलाने के लिये आगे क्यों नहीं आए? 
भाईजान की मौत कई चेहरों पर एक बड़ा तमाचा है. वह जिला पंचायत कांकेर में ड्रायवर के पद पर कार्यरत था. मृत्यु-पूर्व दिये अपने बयान में अली ने तत्कालीन जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी, आइएएस भीम सिंह को अपनी मौत के लिये जिम्मेवार ठहराया है. इसके अलावा मेरे पास उस आवेदन-पत्र की कॉपी भी है जो उसने कलेक्टर को लिखा था. दो नवम्बर के इस पत्र में रमजान ने कहा था, ‘जिला पंचायत के सीईओ ने सितम्बर व अक्टूबर माह का मेरा वेतन बिना कारण बताए रोक दिया है. मुझे कार्य में अनुपस्थिति रहने का कारण बताओ नोटिस दिया जाता है जबकि मैं नियमित रूप से अपने कर्तव्य स्थल पर उपस्थित रहता हूं और हाजिरी रजिस्टर में हस्ताक्षर करता हूं जिसकी जांच करवा सकते हैं.’ वह आगे लिखता है : मेरी पत्नी ह्दय रोग से पीडि़त है. वेतन नहीं मिलने से आर्थिक परेशानी हो रही है. मुझे ऐसा लगता है कि मैं आत्महत्या कर लूं.’
लेकिन तर्कों और दिलासों के तीर चला रही पुलिस के लिये मानो ये दोनों सबूत सीईओ के खिलाफ एफआइआर के लिये पर्याप्त नहीं हैं इसलिए अभी भी जांच जारी है. तय है कि यह कवायद भी खानापूर्ति के साथ खत्म हो जायेगी. कई मामलों का हश्र हम देख चुके हैं. मुद्दे की बात यह है कि अली ने मदद पाने के लिये अफसरों के अलावा मंत्री सहित हर उस दरवाजे पर दस्तक दी जहां से उसे न्याय मिलने की उम्मीद लग रही थी लेकिन हाथ आई तो सिर्फ निराशा जिसके बाद उसने जीवनलीला समाप्त कर ली. कांकेर की तत्कालीन जिलाधीश अलरमेल मंगई डी की कार्यशैली भी सवालों के घेरे में है. चर्चित झालियामारी आश्रम काण्ड में उनकी निष्पक्ष और त्वरित कार्यवाही की खासी सराहना हुई थी लेकिन अली की शिकायत के निराकरण में जिस तरह की लेटलतीफी हुई या जानबूझकर होने दी गई, उससे मेडम की प्रतिष्ठा और ईमानदारीपूर्ण सेवा पर प्रश्न खड़ा हुआ है. 
इस मजबूरी को समझा जा सकता है कि एक आइएएस, दूसरे साथी आइएएस के खिलाफ कार्रवाई करे तो कैसे करे? आश्चर्य कि जिस सरकार ने लोक सेवा गारंटी कानून लागू कर रखा है तथा जिसके अंतर्गत शासकीय सेवकों और नौकरशाहों को एक निश्चित अवधि के अंदर शिकायतों का निबटारा करना जरूरी होता है-वहां पर अली के आवेदन का निराकरण तीन महीने बीतने के बाद भी नहीं हो सका. एक बार मान भी लिया जाए कि रमजान ने ड्यूटी करने में लापरवाही बरती होगी लेकिन उसका वेतन रोकने का अधिकार आपको कैसे मिल गया? इसके पूर्व उसे कितने नोटिस दिये गये? निलंबन या बर्खास्तगी जैसी कार्रवाई के दौरान भी कर्मचारी को आधा वेतन या पेंशन पाने का अधिकार होता है. इस मुकाबले रमजान का गुनाह तो हल्का ही है.सरकार या प्रशासन बता सकता है क्या कि ऐसे अक्षम्य  अपराध के दोषी अफसरों को क्या सजा मिली। आज दोनों आईएएस कलेक्टरी का मज़ा ले रहे हैं। पता नहीं कि एफ आई आर हुई भी कि नही। हुई भी होगो तो ठन्ड बस्ते में  ठहर गई होगी। गुलामी के दौर में कभी एक अंग्रेज ने सही कहा था कि तुम्हारी यानी जनता की किस्मत लिखने का काम गॉड ने हमें आईएएस बनाकर किया है।
लेकिन रमजान ने अनमोल कीमत चुकाई. वह शासकीय कर्मचारी और ड्रायवर संघ का अध्यक्ष भी था लेकिन उसके परिवार की मदद के लिये कोई सामने नहीं आया. कर्मचारी-हितों के नाम पर कितने ही गुट-संगठन नेतागिरी करते हैं लेकिन प्रशासनिक दबाव के आगे सब बेबस नजर आ रहे. धर्म के उसूलों को आधार बनाकर बात-बात पर फतवा जारी करने वाली जमात हो या उनके नेता या फिर वोटों की खातिर अपनी राजनैतिक जमीन सींचने वाले राजनीतिक दल, रमजान अली की मौत पर आँसू बहाने का समय किसी को नहीं मिला. उसके जिंदा रहते ना सही, उसकी दुर्भागयपूर्ण और शर्मनाक मौत के जिम्मेदारों को सजा दिलाने की लड़ाई कांकेर से लेकर राजधानी तक लड़ी जानी चाहिए।
याद रखें कि यह घटना लाल आतंक में लिपटे उस जिले में हुई है, जहां आंख के बदले आंख का कबीलाई कानून लागू है लेकिन लोकतंत्र में न्याय की उम्मीद कानून के सांचे में ढली होती है. फिलहाल कमाऊ पूत के अचानक गुजर जाने से व्यथित पिता और अली का परिवार कलेक्टर के झूठे दिलासों का कफन ओढक़र सोने को मजबूर है. हुसैनी सेना, अली सेना, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के अलावा मुस्लिम पंचायत और सीरत कमेटी जैसे संगठन हैं जिनकी एक आवाज पर पूरी कौम मदद के लिए खड़ी हो सकती है. वे चाहें तो रमजान के परिवार कोन्याय दिलाने की लड़ाई लड़ सकते हैं. यदि पत्थरों से बने आस्था-स्थलों के नाम पर जेहाद छिड़ सकता है तो रमजान को न्याय दिलाने के लिये क्यों नहीं?
देखते हैं योगेश कितना भागयशाली निकलता है..!
- अनिल द्विवेदी
( लेखक पत्रकार हैं )