खुदा महफ़ूज़ रखे एहफ़ाज़ को हर बला से!
एहफ़ाज़ रशीद,पत्रकारिता के क्षेत्र में हमेशा संघर्ष के लिये जाना-पहचाना
नाम।एकदम बिंदास और कल को हमेशा ठेंगे पे रखने वाला एहफ़ाज़ आज भी आने वाले
से बेखौफ़,जबकी उसे हार्ट-अटैक के कारण एस्कार्टस अस्पताल मे भर्ती कराया
गया है।उसके सुर में रत्ती भर भी फ़र्क़ नही आया है,अभी भी उसका अपने रोज़
के दोस्तो से यही कहना है कि कुछ नही होने वाला मुझे,बस ठीक हुआ और फ़िर
देखना।खुदा करे उसे कुछ भी ना हो और खुदा उसे महफ़ूज़ रखे हर बला से।वैसे
तो मुझे भगवान से भी यही मांग करना चाहिये और मैं करूगा भी,क्योंकि एहफ़ाज़
ने कभी भगवान और खुदा मे फ़र्क़ ही नही किया था।होली के त्योहार पर सबसे
ज्यादा रंग खेलने वाले कुछ लोगों मे उसका भी नाम शुमार था।न केवल होली
बल्कि सारे त्योहार वो उसी खुशी और उमंग से मनाता था जैसे ईद्।पता नही उसे
किसकी बुरी नज़र लग गई कि उसे खेलने-कूदने की उम्र मे ही दिल का रोग लग
गया।वैसे भी उसने दिमाग से ज्यादा दिल का ही इस्तेमाल किया था आजतक़।हर
महत्वपूर्ण फ़ैसला वो दिल से किया करता था और शायद नौकरी छोड़ने-पकड़ने में
वो मुझे भी टक्कर देता था।25 साल से ज्यादा पत्रकारिता के बाद भी उसका कोई
पक्का ठौर-ठीकाना नही था।जब तक़ दिल लगा काम किया और जब मन नही माना निकल
लिये नई नौकरी की तलाश में।इस मामले में कई बार मुझे लगता है कि उसका
रिकार्ड मुझ्से भी खराब था।
उम्र में वो मुझसे एकाध साल छोटा ही था मगर
नौकरी यानी पत्रकारिता में मुझसे पहले आ गया था और शायद तीन साल सीनियर
था।उससे पहली मुलाक़ात भी बहुत मज़ेदार थी।हम लोग एमएससी पास करके उन दिनो
राजनीति में हाथ आज़मा रहे थे।एक मित्र संजय वर्मा के बड़े भाई दिलीप वर्मा
के विवाह समारोह मे सब शामिल थे।एहफ़ाज़ संजय के छोटे भाई अनुपम उर्फ़
अंजू वर्मा के दोस्त था और बारात मे वो भी खूब नाच रहा था।हमारा बहुत बड़ा
ग्रूप था और सभी नाचने में मस्त थे।अचानक़ पैरों मे घूंघरू बांध कर एक
नौजवान बारात मे घुसा और नाचने लगा।इससे पहले कि हम लोग उसे कुछ कहते अनुपम
सारा माज़रा समझ कर बीच में आया और खने लगा भैया ये पत्रकार है।हम लोग तब
तक़ छुट्टे सांद ही थे।उससे जैसे ही हम लोगों ने कहा अबे भगा
पत्रकार-फ़त्रकार…तो उसने बीच में ही बात काट कर कहा कि वो मेरा दोस्त
है।इस पर सबका उससे परिचय हुआ।वो पहला परिचय था जो आज तक़ चला आ रहा है।कई
बार उसने मेरा जमकर विरोध किया और मैंने कभी उसकी बात का बुरा नही माना और
स्वभाव के अनुसार कुछ दिनो बाद वो खुद ही आकर मिलता और उससे रिश्ता कायम ही
रहा।
उससे पहली
मुलाक़ात के कुछ साल बाद मैं भी इसी लाईन मे आ गया और फ़िर समबन्ध गहरे
होते चले गये।नौकरी छोड़ना और पकड़ना शायद तब तक़ उसके लिये खेल बन गया
था।दरअसल उसे समझौता पसंद नही था और लड़ना उसे हर किसी से पसंद से
था,खासकर बड़े लोगों से।इसी आदत के कारण घूमते-फ़िरते वो भास्कर भी आया और
इत्तेफ़ाक़ से मेरी ही डेस्क पर काम किया।खबरे जैसे उड़ कर आती थी उसके
पास।जखीरा रहता था उसके पास्।एक दिन उसने मुझसे कहा कि मुझे एक बहुत बड़ी
खबर हाथ लगी है इसे छपना है।खबर सुनकर मैने उससे कहा कि ये खबर तो संपादक
ही क्लियर करेगा बाबू।उसने कहा कि ये छापना ज़रूरी है बहुत से लोगोम को
मिली है मगर किसी ने छपने की हिम्मत नही की है।खबर शहर के बहुत बड़े
औद्योगिक घराने के खिलाफ़ थी।वो ज़िद पर था कि इसे आज ही छपना चाहिये।मैने
उससे कहा कि फ़िर रूक जा रात को सब के जाने के बाद सिटी एडिशन में लगा
दूंगा।खबर तो छपी,हगामा भी हुआ और मुझे जमकर डांट भी पड़ी लेकिन वाह रे
एहफ़ाज़ उसे कोई फ़र्क़ नही पड़ा।मैने कहा नौकरी जा सकती थी तो उसका जवाब
था रोटी तो नही छीन सकता ना कोई ,नौकरी जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?
किस्से तो एक से एक हैं उसके।एक रात मैं हमेशा की तरह ड्यूटी पर
मस्त सोया हुआ था।अचानक़ ये कंही से आ टपकां।उसने आते ही पूछा अनिल भैया
कंहा है।फ़िर वो ढूंढते हुये मेरे पास पंहुचा और ऊठाने लगा।मैं गहरी नींद
में था।बार-बार हिलाने_डुलाने पर मेरी नींद टूटी और आधी नींद मे ही मैंने
उससे बात की।उसने मुझे बताया कि मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी का ह्त्यारा
अस्पताल से फ़रार हो गया है।मैं अच्छी खासी नींद में था मैने उससे कहा बना
दे छोटी-मोटी खबर और फ़िर सो गया तब तक़ उसका दिमाग खराब होम गया था,उसने
चार लाईन मे उस खबर को निपटा दिया और चला गया बाद में मुहे स्टाफ़ ने उठाया
और बताया कि बहुत बड़ी घटना हो गई है।जब मैने उनसे पूछा कि खबर किसने बनाई
है तो एहफ़ाज़ का नाम बताया गया।मेरे हाथ के तोते-कौये सब ऊड़ गये।मैने
उसे लाख ढूंढा तब तक़ एहफ़ाज़ रफ़ूचक्कर हो चुका था।उसे पता था कि मैं रात
को सोता हूं और वो खबर छूटी तो नौकरी खतरे में पड़ सकती थी बस इसिलिये चला
आया था मुझे खबर बताने। ऐसे एक नही कई किस्से हैं।होली तो जैसे उसके
बिना हो ही नही सकती।टाइटल देने से लेकर लोगों के नाम रखने में उसका कोई
सानी नही था। हमेशा हंसी-मज़ाक,बात-बात पे खी-खी उसके अलावा कोई काम
नही।ऐसा लगता था कि हंसना-हंसना ही उसका मक़सद है।मगर आज वो खुद तो हंस रहा
है मगर ना तो उसके दोस्त हंस पा रहे हैं और नाही मैं हंस पा रहा हूं।उसके
रिश्तेदार,यार दोस्त,चाहने वाले सभी दुआ कर रहे हैं कि वो फ़िर सेहंसता
बोलता अस्पताल स बाहर आये।और वो है कि उसे कुछ भी फ़र्क़ नही पड़ा उसका
हंसना ज़ारी है।उसका बाय-पास होना है।ईश्वर करे वो इस इम्तेहान में भी पास
हो जाये। आमीन्।
सौजन्य - अनिल पुष्दकर
http://anilpusadkar.blogspot.in/2011/07/blog-post_05.html